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विष्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान हमारे दे का है। भारतीय संविधान में लोकतंत्र का जिक्र किया गया है। भारतीय परिदृष्य में लोकतंत्र की बात की जाती है। लोकतांत्रिक देष में परिवार की कल्पना नहीं की जा सकती है। वर्तमान समय में देष की राजनीति में जो माहौल बना हुआ है। वह लोकतंत्र में ही राजषाही व्यवस्था को जन्म देने वाला गूढ़ अर्थ बता रहा है। देष की राजनीति में कुछ राजनीतिक पार्टियों को छोड़ दिया जाएं, तो सभी राजनीति दल अपने और परिवार को आगे बढ़ाने के लिए लोकतंत्र को ठेंगा दिखाकर राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा दे रहे है। प्रदेषों की क्षे़त्रीय राजनीति में जिस तरीके से अपने हित को साधने के लिए परिवारवादी सोच राजनीतिक पार्टियों में हावी हो रही है, वह स्वास्थ्य लोकतंत्र के लिए ठीक नही कहा जा सकता है। देष की आजादी के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुसार सरकार का निर्माण जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में बनी, लेकिन कांग्रेस के उसी शासन काल में परिवार की शुरूआत हो चुकी थी। जिस देष में लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली है, वहां पर राजाषाही व्यवस्था समाज के स्वरूप के लिए ठीक नही कहा जा सकता है।
आज देष की राजनीति स्वार्थ हितों के लिए इतनी सी बैचेन हो गई है, कि समाज और देष के हितों का परित्याग कर चुकी, ये राजनीतिक पार्टियॉं प्राचीन काल की शासन प्रणाली को अपनाने को मोहताज हो चली है। जिस शासन व्यवस्था को निरकुष शासन माना जाता हो, वह वर्तमान परिदृष्य में देष के हित में कैसे हो सकती है। आज देष की अधिकतर पार्टियॉं चाहे वे कांग्रेस हो, सपा की बात हो। राजनीति में परिवारवाद अपनी पैठ जमा चुका है। कांग्रेस पार्टी में इंदिरा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के समय से ही राजाषाही व्यवस्था हावी हो चुकी थी। देष की स्वतंत्र में भागीदार कांग्रेस ही देष के साथ जिस तरीके का व्यवहार की, वह उचित नही कहा जा सकता है। भाजपा, बसपा इस स्वार्थ हित से प्रेरित नहीं दिख रही है, लेकिन लोकतंत्र में जिस तरीके से परिवार राजनीति में हावी हो रहा है, वह देष के साथ प्रतिभा का हनन भी माना जा सकता है।
सपा में विगत दिनों से कलह का दौर जारी है, लेकिन सपा कुनबे में वर्तमान का जिस तरीके से भाई-भतीजावाद उत्तर प्रदेष की राजनीति में पैठ बना चुका है। वह प्रदेष की राजनीति में ठीक नहीं माना जा सकता है।स्वास्थ्य लोकतंत्र में यह जरूरी होता है, कि सभी के लिए दरवाजा खुला होना चाहिए, फिर वह चाहे राजनीति हो या कोई दूसरा क्षेत्र। राजनीति में बढ़ते परिवारवाद और राजषाही की वजह से ही बिहार में राबड़ीदेवी मुख्यमंत्री के पद तक जा पहुंची। इस तरह के उदाहरण अन्य राज्यों में पेमा खांडू, और चन्द्रबाबू नायडू के रूप में देखा जा सकता है। राजनीति में एकल प्रभाव होने की हानियॉ भी होती है। किसी एक व्यक्ति हा प्रभाव होने के कारण उसके अस्वास्थ्य होने आदि की दषा में पार्टी पर प्रभाव पड़ता है, जैसा ताजा उदाहरण तमिलनाडू में देखा जा सकता है, लेकिन लोकतंत्र में जब किसी एक ही व्यक्ति का अधिकार हो जाता है, तो लोकतंत्र प्रभावित हो जाता है। उसके एक ही विचार पर पार्टी के चलने से समाज के लिए उचित फैसले नहीं हो पाते है। वह अकेला नेता अपने हितों के लिए समाज से अलग हटकर अपनी स्वार्थपूर्ति की नीति को अपना सकता है। वर्तमान दौर की बात की जाएं, तो जिस समाजवाद का उदय कांग्रेस के राजषाही व्यवस्था पर हमला करने के बाद हुआ था। आज वह कांग्रेस से हजारों कदम आगे बढ़ चुकी हैं।
2004 में जब मनमोहन के हाथ में यूपीए की सरकार आई, तो लगा कि कांग्रेस परिवारवाद की परिपाटी को छोड़कर आगे समाज के विकास को अपना एजेंडा बनायेगी। फिर 2014 लोकसभा चुनाव में जिस तरीके से युवराज को कांग्रेस ने मोदी के खिलाफ खड़ा किया, उससे जगजाहिर हो गया कि, कांग्रेस अपनी पुरानी लीक पर ही चलेगी। क्षेत्रीय सियासत में जिस तरीके की भाई भतीजावाद का खेल चल रहा है। उससे क्षेत्र में विकास का मुद्वा तो कही खो सा गया है। अपने हितों के लिए चुनाव में जातिवादी व्यवस्था को कायम रखने की फिराक में भी ये राजनीतिक दल पीछे नहीं रहना चाहते है। दलितो और मुस्लिमों के ठेकेदार बनकर अपनी सियासत को चमकाने के लगे हुए है। प्रदेष और कौम के विकास का मुद्वा इनके एजेंडे से खत्म सा हो चला है। देष में जब हर स्तर पर लोकतंत्र की दुहाई दी जाती है, तो इन परिवारिक कुनबे वाली पार्टियों को भी अपने परिवार को आगे बढ़ाने की नीति को पीछे छोड़कर देष के विकास को महत्व देना होगा। अगर देष में सच्चे अर्थों में लोकतंत्र की बात होनी चाहिए, तो इन पार्टियों को भी राजनीतिक दायरे में रहकर कार्य करना होगा।
महेष तिवारी
स्वतंत्र टिप्पणीकार
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