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मानव एक सामाजिक प्राणी है, जिसको इस भौतिकवादी संसार में कुछ अधिकारों और स्वतंत्रताओं की जरूरत होती है, जिसको मद्देनजर रखते हुए अन्तराष्ट्रीय पटल पर मानवाधिकार संस्था का गठन किया गया। भारत में इस संस्था के कानूनों और उद्देष्यों को मान्यता दी गई है। समाज में रहने वाले सभी स्त्री और पुरूष को समान अधिकार होने चाहिए, जिससे वे अपना सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकास के साथ सामाजिक परिवेष में कंधे से कंधा मिलाकर सामाजिक सरोकार से जुड़ी रहें। भारत विषाल लोकतांत्रिक देष है, जहां पर लगभग सभी धर्म-सम्प्रदाय के लोग जीवन व्यतीत करते है, लेकिन कही न कही आज भी भारतीय समाज में समानता और गरीबी-अमीरी की व्यापक खाई व्याप्त है, जो मानवाधिकार के महत्व को निराधार साबित करने वाली साबित होती हंै। आदमी चाहे जिस जाति, धर्म सम्प्रदाय का हो, उसके साथ सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, जन्मजात, संपत्ति और ऊंच-नीच के नाम पर बेहूदी हरकत नही की जाएगी, यह मानवाधिकार के उद्देष्यों में शामिल है, लेकिन बात अगर देष की ही की जाए, तो आज भी जब देष विकास की गौरवगाथा लिखता हुआ विकासपथ पर अग्रसर है, उस वक्त भी देष में आज लोगों की स्थिति भयावह बनी हुई है। दलितों और महिलाओं की स्थिति के प्रति सामाजिक ताने-बाने में आज भी देष की आजादी के पूर्व की धारण ही देखती बनती है, जो अंग्रेजों के समय थी। किसानों और दूर-दराज के क्षेत्रों के रहवासियों की सामाजिक और आर्थिक दिषा और दषा में परिवर्तन की लहर पहुंचने से कोसों दूर नजर आती है। बच्चों और गरीब आदिवासी, दलितों तक आज भी ईलाज और षिक्षा की उचित प्रणाली अपनी जगह आजादी के सात दषक बाद भी नहीं बना पाई है। स्वास्थ्य और षिक्षा के क्षेत्र में जीडीपी का हिस्सा बढ़ाना समय की जरूरत है, देष की षिक्षा व्यवस्था में गुणवत्ता पर बल देना होगा, केवल खानापूर्ति के लिए पन्नों पर साक्षरों की सूची बढ़ाने से न देष की उन्नति संभव है, न ही उसकी और मानव समाज की।
महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों पर लगाम कसना बेहद जरूरी है, देष में महिला सुरक्षा और सद्भावना की बात तो की जाती है, लेकिन वास्ताविकता इससे परे होती है। जिस दिषा में कार्य करना जरूरी है। देष के समूल पिछड़़े दूर-दराज के हिस्सों के बच्चों और महिलाओं की तस्करी का कारोबार का विकराट रूप ले चुकी है। सालाना औसतन आठ मिलियन अमेरिकी डाॅलर का तस्करी का व्यापार फल-फूल रहा है। तमाम कानूनों-कायदों के निर्मित होने के बावजूद भी पिछड़े प्रदेष में गरीबी, बालमजदूरी और तमाम तरीके की कुरीतियों पर सम्पूर्ण तरीके से लगाम नहीं लगाया जा सका है।जिस देष के कुछ प्रदेषों को आज भी पिछड़े और बीमारू राज्यों का खिताब प्राप्त होता हो, उससे आखिर क्या उम्मीद की जा सकती है। देष में होने वाली सभी तरह के अपराधों की फेहरिस्त में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही है। गरीब अपनी गरीबी से तंग है, तो अमीरियत परवान चढ़ती जा रही है, सरकारें तमाम सिफारिषों के बावजूद भी गरीबी का निष्चित पैमाना नही तय कर पा रही है, फिर कहां के अधिकारों की बात हर साल की जाती रहती है। आज के दौर में एक नया टैªंड़ बन गया है, जिस क्षेत्र में समाज और देष पिछड़ता है, उससे निजात दिलाने के लिए एक तिथि निष्चित करके उसके आगे दिवस शब्द जोड़ दिया जाता है, और उक्त दिन उस विषय पर बात करकें खानापूर्ति करने की जुगत होती है, दूसरे दिन उस समस्या को ढण्डें बस्ते में रख दिया जाता है। जो देष अन्य देषों की चिकित्सा और षिक्षा जैसे क्षेत्रों के लिए आर्थिक मदद करता हो, वहां के लगभग 30 प्रतिषत बच्चे कुपोषण के षिकार हो उसके लिए इससे गंभीर मामला और क्या हो सकता है।
प्रदेष ही नहीं पूरे देष में मानव तस्करी का लाखों -करोड़ों रूपये का व्यापार फैला हुआ है, वह पष्चिमी बंगाल और बिहार जैसे पिछड़े राज्यों में व्यापक स्तर पर मौजूद है, षिक्षा के नाम पर गांव और आदिवासी क्षेत्रों में बच्चों के भाविष्य से खिलवाड़ किया जा रहा है। अभी हाल में षिक्षामंत्रालय द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में पूरे देष के सरकारी षिक्षण संस्थानों में षिक्षकों की भारी कमी में व्याप्त है, फिर जिस देष में षिक्षा की हालत बेहाल हो, वहां किस मानवाधिकार की बात की जाएं, जब भावी पीढ़ी ही कुपोषण और षिक्षा की बदहाली से पीड़ित होगी, फिर वह किस अधिकार के लिए आंदोलित और जागृति होगी।देष में कानून व्यवस्था में भी व्यापक सुधार की जरूरत है, पुलिस प्रषासन को भी अपनी जिम्मेदारियों पर गौर करने की जररूत है। देष को धर्म और सम्प्रदाय के फालतू वैमानस्ता को भूलकर मानवधर्म को अपनाने की जरूरत है। दलितों और बहू-बेटियों की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करना होगा, तभी मानवाधिकार की कल्पना की जा सकती है। देष में जहां भी सबसे ज्यादा आदिवासी, गरीब और दलित-षोषित सामाजिक परिवेष है, जिसे समाज की मुख्यधारा से जोड़ना ही मानवाधिकार मनाने का लक्ष्य होना चाहिए। देष में एक ऐसे सामाजिक और प्रषासनिक व्यवस्था की जरूरत है, कि सभी लोग निडर और स्वच्छंद रूप से रह सके, फिर बात चाहे स्त्रियों की हो, या पिछड़े सामाजिक तबके की तब सच्चे अर्थों में मानवाधिकार दिवस अपने उद्देष्य को प्राप्त करने में सफल हो सकेगा, और व्यक्तियों को भी समाज और देष के प्रति वफादार बने रहने की जरूरत है, क्यांेकि कोषिष केवल एक तरफ की नाकाफी सिद्व होती है।
महेश पंडित
स्वतंत्र टिप्पणीकार
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