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दंगल गर्ल पर दंगल जायज नही

aandolan
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दंगल गर्ल पर दंगल जायज नहीं लोकतांत्रिक राष्ट्र में कट्टरता का कोई नामोनिशान नहीं होना चाहिए, फिर वह धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक किसी भी तरीके का हो। हमारे देश में फेसबुक, और अन्य सोषल नेटवर्किंग साइटस पर महिलाओं को ट्राॅल करने और परेषान करने की वारदातें काफी बढ़ रही है, जो सभ्य सामाजिक परिवेष के लिहाज से उचित नहीं है। देश में जब प्रगति और महिलाओं को सामाजिक व्यवस्था में पुरूषों के बराबर का दर्ज प्रदान करने की बातें उठती रहती है, फिर जायरा जैसी नाबालिग लड़की को माफीनामा के लिए मजबूर किया जाना सभ्य सामाजिक मानसिकता के खिलाफ है। यह हमारे राष्ट्र के लिए शर्म की बात होनी चाहिए, कि एक सोलह साल की किषोर लड़की को अपनी कला प्रदर्षन की वजह से कुछ तथाकथित कट्टरपंथियों की वजह से सार्वजनिक माफीनामा फेसबुक पर प्रदर्षित करना पड़ता है, और उसको कहना पड़ता है, िक वह रोल माॅड़ल नहीं हो सकती है। कष्मीर में जब कट्टरपंथ और चरमपंथ हावी है, जहां पर लोगों को अपने घरों में हिंसा की वजह से कैद होकर रहना पड़ता है, ऐसी स्थिति में अगर जायरा वसीम जैसी कोई लड़की कष्मीरी समाज को आईना दिखाती हुई अमन, शांति और अपना व्यक्तित्व विकास के साथ समाज में आगे बढ़ने के लिए कष्मीर के युवाओं को प्रेरित करने की दिषा में निकल पड़ी है, और कष्मीर ही नहीं पूरे भारत देष का युवा उसकी कलात्मक प्रतिभा का कायल हो चुका है, और उसके जैसा बनने के लिए उससे प्ररित हो सकता है, फिर उसकी प्रतिभा को दबाना और उसको मजबूर करना सामाजिकता को नष्ट करने की सोची- समझी चाल पहल मालूम होती है। जो पिछले कुछ वर्षों से चली आ रही है। स्थितियाॅ बदल जाती है, लेकिन महिलाओं पर अत्याचार, और लुज्म की दास्तान में परिवर्तन न होना कही न कही एक सामाजिक कुरीति है, जिसको दूर करके ही समाज उन्नति की दिषा में चल सकता है। विगत कुछ वर्षाें से कष्मीर की घाटी जो खूबसूरती के लिए मषहूर है, वह आंतकी घटनाओं से पीड़ित है, वहां के युवक और युवती घरों में कुछ अलगावादियों, और कट्टरपंथियों की नीतियों की वजह से दबकर रह गया है, जो अपनी प्रतिभा और कला का प्रदर्षन नहीं कर पा रहा है। इस प्रथा को अगर जायरा जैसी लड़की तोड़कर कष्मीर में युवाओं की प्रेरणा स्त्रोत बन रही है, फिर उसको रोकना राजनीतिक और धार्मिक दोनों स्तरों पर उचित नहीं है। सोषल मीडिया पर मिली धमकियाॅ यह दुखद मामला है, वर्तमान समय में घाटी के हालात ठीक नहीं है, वहां की सियासी गलियारों के माध्यम से घाटी को निकालने की कोषिष जारी है, लेकिन कुछ असामाजिक तत्वों की तथाकथित बुद्विजीविता की देन है, कि कष्मीर अपनी खूबसूरती और शांति की बहार में वापस नहीं लौट पा रहा है। अपनी प्रतिभा के माध्यम से कष्मीर की प्रचलित धारणा और जकड़न को तोड़ने वाले युवाओं में जायरा वसीम भी शामिल हो रही है, जिसको लेकर कुछ बुद्विजीवीं को कुरेध रहा है। जिस देष की सभ्यता में गंगा-जमुनी तहजीब घुल-मिली हो, उस देष में आखिर फितरती बवाल कब तक उबलता रहेगा, जो समाज को बाॅटने और स्त्री-पुरूष को एक जैसा ओहदा प्राप्त होने में बाधक बनता रहेगा। समय-समय पर केवल विचार-विमर्ष की राजनीति से स्त्री की दषा और दिषा समाज में बदलने वाली नहीं है, जब तक सामाजिक परिदृष्य में महिलाओं और स्त्रियों को लेकर मनोदषा में बदलाव नहीं आयेगा। दंगल जैसी सामाजिक मुद्वे पर बनी फिल्म जिसका उद्देष्य ही सामाजिक परिवेष में महिलाओं और बच्चियों को सुनने वाले तानों और कुत्सित विचारों पर बनी हो, जो पिछले पन्द्रह- बीस वर्ष पूर्व महिलाओं और बच्चियों को पुरूष के बराबरी के कामों को करने पर सुनने को मिलती थी, उसको वर्तमान सामाजिक परिवेष से दूर करने और कट्टरपंथ के साथ सामाजिक ताने-बाने में पित्तृसत्तात्मक समाज में बदलाव को लाने के लिए फिल्म का निर्माण किया गया हो, और उसकी युवा कलाकार को अगर ऐसी बातों का सामान करना पड़ता है, तो मालूमात होता है, कि समाज अभी भी पुराने परंपारिक ढर्रें पर ठहरा मालूम पड़ता है, जिसकी संकुचित सोच में बदलाव इस इक्कीसवीं सदी में न के बराबर दिखती है, जब विष्व परिदृष्य पर परिवेष और रहन-सहन का सामाजिक परिवेष बदल रहा है। 14 जनवरी को सूबे की मुख्यमंत्री से मुलाकात के बाद तथाकथित कटटरपंथियों और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर सोषल मीडिया पर अपषब्दों को बरपाया गया, जो सीमित, संकुचित सोच को बयां करता हैे। सबसे बड़ी बात अगर मुख्यमंत्री से मिलने की वजह से जायरा वसीम के खिलाफ अपषब्दों की तीर चली, तो वह भी सामाजिक परिदृष्य के लिए ठीक नहीं है, फिर यह विचारणीय विषय हो जाता है, कि क्या कोई कामयाबी की राह पर चल रही बच्ची अपने सूबे की मुख्यमंत्री और देष के अन्य नेताओं से नहीं मिल सकती है। समाज में बढ़ती ऐसी सामाजिक असहिष्णुता को समाज से नियंत्रित करने का दायित्व बुद्विजीवी समाज को उठाना होगा, तभी समाज में बदलाव की लहर उठ सकती है। फिल्मी दुनियाॅ के सितारों और राजनेताओं द्वारा इस मासूम लड़की के साथ खड़े होने से ही समाज में बदलाव की बयार शुरू होनी चाहिए, जिससे आगे किसी लड़की को अपने कलात्मक और अच्छे कामों के लिए माफीनामा न मांगना पड़े। उचित तो यह होना चाहिए, कि जायरा जैसे युवाओं को हताष और परेषान करने वाले तत्वों के कुत्सित विचारों का दमन करके सामाजिक समरसता की सुदृढ़ इच्छाषाक्ति प्रदर्षित करने की जरूरत है।
महेश तिवारी
स्वतंत्र टिप्पणीकार

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