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बैशाखी के भरोसे कांग्रेस का बेड़ा ढुबने की उम्मीद
कहा जाता है, उत्तरप्रदेश सूबे की चुनावी लड़ाई के माध्यम से ही दिल्ली का रास्ता खुलता है। 2019 का सेमीफाइनल कहे जाने वाले इस सियासी संग्राम में देष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस सपा साइकिल के कैरेल रूपी बैषाखी पर सवार होती दीप्तमान हो रही है। वहीं उत्तरप्रदेष के राजनीति में सत्तासीन सपा का दो फाड़ हो भी चुका है। पिता -पुत्र की लड़ाई में चुनाव आयोग ने अपना निर्णय सुना दिया। महीनों की परिवारिक कलह का अंत हो चुका है। भाई-भतीजावाद की पार्टीं की जो दुर्गति सूबे की सियासत में दीप्तमान पिछले कुछ महीनों में हुई, उसमें परिवारवाद की संतालत में पुत्र, पिता पर भारी पड़ गया। वैसे नोटबंदी पर विपक्षी दलों के बेइंतिहा विरोध के बावजूद जनता भाविष्य में फायदे को देखते हुए शांत है, उससे सूबे में भाजपा की स्थिति मजबूत होती मालूम पड़ रही है, क्यांेकि सूबे में बसपा का जनाधार पहले ही उससे खफाजद हो चुका है, रही -सही कसर सपा के कुनबे के दरकने के साथ घटित हो चुका है। राजनीतिक फलक पर अभी तक राजनेता कभी एक दूसरे के नहीं होते थे, लेकिन सूबे की राजनीति ने यह सिखा दिया, कि सत्ता प्रेम के आगे पिता-पुत्र का नाता भी नतमस्तक हो सकता है। राजनीति के पन्ने में इस इतिहास के दर्ज होने के पष्चात् भाजपा का जनाधार और मजबूत होता दिख रहा है, क्यांेकि मुलायम सिंह यादव ने अपना जातिवादी प्रेम अपने पुत्र पर मुस्लिम विरोधी कहकर पहले ही गढ़ चुके है, और अपने बयान से जगजाहिर कर दिया है, जातिवादी राजनीति के भरोसे सत्ता का सुख प्राप्त करने की चाहत पाले बैठे है, लेकिन सूबे की जनता पिछले कुछ चुनावों से विकास और अपने हित के मु़द्वे पर मतदान करती दिख रही है, जिससे सूबे की सियासत में भाजपा अब निर्वाध रूप से लगातार बढ़त हासिल करती नजर आ रही है। मुलायम सिंह यादव का अपने पुत्र पर लगाये गए लांछन से यह स्पष्ट हो चुका है, कि जातिवादी जिस फिरकी के अर्सें मुलायम और अखिलेष ताक लगाकर बैठे है, वह नहीं चलने वाली है। कांग्रेस की स्थिति पहले से ही सूबे में नाजुक बनी हुई है, जो अब बैषाखी पर सवार होने के बाद आईसीयू में भर्ती होने जैसे मामूलात पड़ती है। सूबे में बसपा की हालात भी कोर्ट का फैसला आने के पष्चात् पतली दिख रही है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने भाषा, जाति और मजहब को चुनाव से दूर रहने का फरमान सुना चुकी है।
सूबे के धरतीपुत्र मुलायम सिंह अपने आप ही उस ड़ाल पर बैठे प्रतीत हो रहे है, जिसकों वो काटते नजर आ रहे है। उन्होंने अखिलेष यादव पर आरोप लगाया है, कि उन्होंने अपने कार्यकाल में मुस्लिमों की अनदेखी की है, अब सबसे बड़ा सवाल यही खड़ा होता है, कि सूबे की सत्ता साधक क्या केवल मजहबी आधार पर अपनी हेकड़ी दिखाएंगें। फिर बाकी बची जातियों और धर्मांें का क्या होगा, वही दूसरी ओर 27 साल यूपी बेहाल का नारा बुलंद करने वाली कांग्रेस का वाजूद सूबे में न के बराबर दिख रहा है, और वह अखिलेष के तले लड़ने को तैयार दिख रही है, जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है, कि सूबे की कांग्रेस पार्टी का जनाधार कहां तक सीमित रह गया है। जो कभी सूबे की सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी, आज अपने लिए जमीन तलाषती प्रतीत हो रही है। बसपा का भी जनाधार घटता दिख रहा है, सूबे में यही रवैया देखने को मिला तो भाजपा अपने विकास और सबको साथ ले चलने वाले इरादे के साथ सूबे में अपनी व्यापक पैमाने पर उपस्थिति दर्ज करा सकती है, क्यांेकि नोटबंदी के तमाम विरोधों के बावजूद जनता समर्थन में है, और कांग्रेस युवराज अपनी नाकामी का तमगा समय-समय पर खुद देते रहे है, क्यांेकि जो पार्टी छ दषक एक छत्र राज की हो, देष की राजनीतिक व्यवस्था में, उसके उपाध्यक्ष का फटा कुर्ता दिखाना और निराधार आरोपों की राजनीति करना निचले दर्जे की सियासत और बचकनी लगती है, जिसके कारण कांग्रेस खुद का वाजूद मिटा रही है। कांग्रेस जिस सूबे से आस लगाकर बैठी थी, कि अगले लोकसभा चुनाव में यही से अपना वाजूद और बेस बनाकर दिल्ली की गद्दी तक पहुंचने का वह उत्तरप्रदेष में गठबंधन के बाद चकना-चूर हो सकता है। वैसे सपा और कांग्रेस की भारतीय राजनीति में पिछले कुछ वर्षों से भरतमिलाप चलता आया है, लेकिन उत्तरप्रदेष में जिस तरह कांग्रेस कभी जो देष की सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी, आज क्षेत्रीय पार्टी का दर्जा प्राप्त सपा के तले लड़ने को मजबूर है, इससे जगजाहिर होता है, कि कांग्रेस में नेतृत्व का साफ अभाव है, और राहुल गांधी देष में अपनी पार्टी का वाजूद बचाने की दिषा में कोई नया मंत्र फुॅकने में नाकाम साबित हो रहे है।
वर्तमान में जनता सूबे में हो रहे भ्रष्टाचार, दंगों से परेषान हो चुकी है, जिसके लिए वह बदलाव के लिए तत्पर दिख रही है। इसके साथ अगर कांग्रेस जल्द से जल्द अपनी छवि में बदलाव करती नहीं प्रतीत हुई,तो उसका 2019 का दांव भी उलट पड़ने वाला है। केवल नकारात्मक राजनीति के बल पर राहुल गांधी कांग्रेस की खोई हुई साख वापस नहीं दिला सकते है। कांग्रेस जो सूबे में 27 साल यूपी बेहाल का नारा लगा रही थी, वह ऐसी परिस्थिति में दिख रही है, कि अपने मुख्यमंत्री पद के दावेदार को वापस लेने की बात कह रही है, राष्ट्रीय पार्टी का इससे बुरी स्थिति और क्या हो सकती है। कांगे्रस को अपना खोया राजनीतिक वाजूद पाने के लिए पार्टी के भीतर व्याप्त खोखलेपन को भरना होगा, तभी कांग्रेस का वाजूद टिकता हुआ दिख सकता है, लेकिन वर्तमान में कांग्रेस में कोई नया मंत्र फुॅकता हुआ नहीं दिख रहा है, जिससे कांग्रेस को संजीवनी मिल सकें। केवल सपा की सवारी से उसका कल्याण नहीं हो सकता है।
महेश तिवारी
स्वतंत्र टिप्पणीकार
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