Menu
blogid : 23000 postid : 1343078

ऐसे तो संभव नहीं स्वस्‍थ भारत

aandolan
aandolan
  • 31 Posts
  • 3 Comments

देश के आधे से अधिक हिस्से जल के जलजले से पीड़ित हैं। ऐसे में स्वास्थ्य सुविधाओं की जरूरत बढ़ जाती है। किसी भी राष्ट्र की समुचित उन्नति के लिए यह नितांत आवश्यक है कि उस राष्ट्र के नागरिकों को समुचित सुविधाएं मुहैया करवाई जाएं। हमारे देश की विडंबना इसी से पता चलती है कि किसान खेत में बेहाल है, छात्र अच्छी शिक्षा से वंचित हैं, तो वहीं रोटी, कपड़ा और मकान के बाद की सबसे जरूरी आवश्यकताओं की पूर्ति भी सरकारें नहीं कर पा रही हैं। देश में स्वास्थ्य सुविधाओं का काफी अभाव है। विश्व स्वास्थ्य सूचकांक के कुल 188 देशों में भारत 143वें पायदान पर है। जो साबित करता है कि स्वास्थ्य सुविधाओं में हम अफ्रीकी देशों से भी बदतर हालात में हैं। ऐसे में नई स्वास्थ्य नीति मील का पत्थर साबित हो सकती हैं, लेकिन यह नीति बीमार तंत्र और बुनियादी ढांचे के अभाव की वजह से यह ख्याली पुलाव भी साबित हो सकती है। इससे निपटने की तैयारी सरकार की होनी चाहिए।

kuposhan

जब तक हमारे देश में मेट्रो शहरों से लेकर दूर-दराज के इलाकों तक स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच सुनियोजित तरीके से नहीं हो पाती, तो हम कैसे अपने-आप को एक विकसित और समृद्ध राष्ट्र कहलाने की तरफ अग्रसर हो सकते हैं? आज देश की आबादी दिन दोगुनी-रात चौगुनी बढ़ रही है, उस लिहाज से अगर स्वास्थ्य सुविधाओं का संजाल देश में नहीं बिछाया जा सका है, तो यह देश के दूर-दराज इलाकों में रहने वाले उन मजदूर-किसानों के साथ सरसरा नाइंसाफी है, जिसको 26 से 32 रुपये कमाने पर गरीब की श्रेणी से बाहर कर दिया जाता है। आज की कमरतोड़ महंगाई के दौर में 26 से 32 रुपये में कैसे परिवार का पालन-पोषण हो सकता है, यह सरकारों को खुद विचार करना होगा? स्वास्थ्य सेवाएं दिनों-दिन महंगी होती जा रही हैं और सरकारें मात्र सबको स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाने का दावा करती रहेंगी? पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश सरकार को डेंगू से होने वाली मौत और मच्छर जनित रोगों पर गलत रिपोर्ट देने की वजह से हाईकोर्ट द्वारा फटकार लग चुकी है, फिर भी सरकारें सचेत नहीं हो रही हैं.
देश के बेहतर भविष्य के लिए स्‍वस्‍थ समाज का निर्माण करना महत्वपूर्ण है। इसको समझते हुए भी हमारी सरकारें स्वास्थ्य की नीतियों में व्याप्त लचरता और पिछड़ेपन को दूर करने के लिए चिंतित नहीं हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण रवायत कही जा सकती है। अगर हमारा देश वैश्विक बीमारियों के सम्पूर्ण बोझ का लगभग 21 फीसदी हिस्सा वहन करता है, और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर हमारी सरकारें खर्च के मामले में निचले पायदान पर हैं, तो यह जाहिर करता है कि हमारी रहनुमा व्यवस्था आवाम के स्वास्थ्य के प्रति कितनी सचेत है? स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर अगर दिल्ली और मुम्बई जैसे शहर बदरंग और सरकारी नीतियों की उपेक्षा के शिकार हैं, फिर अन्य दूर-दराज की आवाम के प्रति सरकार की नियत साफ दृष्टिगोचर होती है। अभी हालिया वक्त में आएं, एक स्वास्थ्य सर्वे में यह मुद्दा प्रकाश में आया कि दिल्ली और मुम्बई में हर वर्ष हाइपरटेंशन, टीबी, डायरिया और डेंगू के मरीजों की तादाद बढ़ रही है।

दिल्ली में रोजाना टीबी से लगभग 10, तो वहीं सर्वे के मुताबिक लगभग 18 मौतें होती हैं। ऐसे में आधा भारत जब बाढ़ की विभीषका झेल रहा है, उस वक्त दूर-दराज के इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं के समुचित पहुँच की आशा करना निराशाजनक हो सकता है। क्योंकि जब दिल्ली में सरकारी और निगम अस्पतालों में लगभग 40 फीसदी मेडिकल और लगभग 45 फीसदी पैरामेडिकल स्टाफ की कमी है, तो फिर समुचित स्वास्थ्य सुविधाओं की दूर-दराज तक पहुँच कैसे हो सकती है और स्वस्‍थ भारत का निर्माण कहां से हो सकता है?
स्वस्‍थ भारत के लिए कुशल डॉक्टरों की भी देश में आवश्यकता हैं। शिक्षा के साथ स्वास्थ्य भी सामाजिक विकास का महत्वपूर्ण बिंदु है और भारत में अधिकांश आबादी अभी भी बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं हासिल करने के लिए जूझ रही है। उसे अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा इलाज पर खर्च करना पड़ रहा है। रिसर्च एजेंसी अर्न्स्ट एंड यंग द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 80 फीसदी शहरी और करीब 90 फीसदी ग्रामीण नागरिक अपने सालाना घरेलू खर्च का आधे से अधिक हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर देते हैं। इससे हर साल चार फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे आ जाती है। ऐसे में केवल नीति काम नहीं आने वाली। जब तक जड़ से व्यवस्था में सुधार नहीं होगा। क्योंकि देश में स्वास्थ्य क्षेत्र में पर्याप्त बुनियादी सुविधाओं और मानव संसाधनों का न होना एक बड़ी समस्या है।

इस चुनौती की ओर पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी ध्यान दिलाया था। दिसंबर, 2016 में उन्होंने कहा था कि देशभर में 24 लाख नर्सों की कमी है। उनके मुताबिक 2009 में इनकी संख्या 16.50 लाख थी जो 2015 में घटकर 15.60 लाख रह गई थी। राष्ट्रपति ने सवा अरब से अधिक आबादी के लिए केवल 1.53 लाख स्वास्थ्य उपकेंद्र और 85,000 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होने पर चिंता जाहिर की थी। सरकार मानती है कि देशभर में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है। कमी होने के बावजूद प्रतिवर्ष 5500 डॉक्टर ही तैयार हो पाते हैं। वर्ष 2005 में तत्कालीक सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य के मसले पर विफल राज्यों की विशेष सूची तैयार की। इसमें बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, ओडिशा, राजस्थान और असम जैसे बीमारू और पिछड़े राज्यों को सम्मलित किया गया। मगर वर्ष 2014-15 की रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक इन राज्यों ने स्वास्थ्य की मद में ज्यादा खर्च करना मुनासिब नहीं समझा। आरबीआई के आंकडों के मुताबिक 2014-15 में बिहार ने जहां सार्वजनिक स्वास्थ्य मद पर बमुश्किल से 3.8 फीसदी खर्च किया। वहीं, अन्य राज्यों की स्थिति भी दयनीय ही रही।

स्वस्‍थ समाज से ही देश की उन्नति हो सकती है। परन्तु सरकार स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर आम आवाम से छलावा करती प्रतीत होती है। छत्तीसगढ़, बिहार, उत्तरप्रदेश और झारखंड जैसे पिछड़े और बीमारू राज्य वर्तमान दौर में डाक्टरों की विशाल संख्या में कमी से जूझ रहें हैं। फिर वहां की आवाम कैसे स्‍वस्‍थ और खुशहाल रह सकती है? जो सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र डाक्टरों की लगभग 80 से 90 फीसदी कमी से पहले ही पीड़ित हैं, उन तक आवाम आखिर किस उद्देश्य के साथ पहुंचे। आज देश के कुछ इलाकों की बिडंबना तो यहां तक है कि वहां पर मरीजों को ले जाने के लिए एम्बुलेंस मुहैया नहीं हो पाती। फिर ऐसे में कब तक निशुल्क स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध करवाने का झूठा ढिंढोरा देश के भीतर पीटा जाता रहेगा।

देश के कुछ हिस्सों में तो गरीब तबके के लोगों को शव ले जाने के लिए गाड़ी तक अस्पताल प्रशासन मुहैया नहीं कर पाता। स्वास्थ्य के नाम पर यही कहा जा सकता है कि लोगों के साथ बस खेल हो रहा है। यह देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि पिछले दो दशक के भीतर स्वास्थ्य सुविधाओं के प्रति सरकारी तंत्र ने देखना उचित नहीं समझा। भारत का सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च लगभग 1.3 फीसदी है, जो ब्रिक्स देशों में सबसे कम है। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि हमारी सरकारें लोगों के स्वास्थ्य के प्रति सचेत हैं और गंभीरता से स्वास्थ्य के मुद्दे को ले रही हैं। देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की एक तस्वीर यह भी है कि देश की 48 फीसदी आबादी वाले 9 पिछड़े राज्यों में देश की सम्पूर्ण शिशुमृत्यु दर 70 फीसदी है, तो वहीं लगभग 62 प्रतिशत मातृ मृत्यु दर है। फिर सरकारें स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर देश में क्या कर रहीं है, यह देश के साथ सरकार को भी सोचना होगा?

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh