Menu
blogid : 23000 postid : 1343361

कुपोषण से बचाव की हो समुचित व्यवस्था

aandolan
aandolan
  • 31 Posts
  • 3 Comments

देश का भविष्य बच्चे हैं। बच्चे ही कल युवा होंगे और राष्ट्र की प्रगति व उन्नति के शिखर पर देश को पहुँचाने का दायित्व उठाएंगे। इन बिंदुओं को गौर करें, तो फिर देश के भावी भविष्य को शारीरिक-मानसिक स्तर पर हृष्ट-पुष्ट और स्वास्‍थ्‍य की दृष्टि से बलवान होना चाहिए। मगर यह उस देश के समक्ष विडंबना है कि जहाँ की लगभग 60 फीसदी जनसंख्या कृषि कार्यों पर आत्मनिर्भर है, उस देश के बच्चों को कुपोषण के आगोश में जाने से बचाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है। जिस देश ने विकसित देशों से कदम से कदम मिलकर चलने की ठान ली है, उस भारत देश को स्वास्थ्य, शिक्षा और मूलभूत संरचनाओं की पूर्ति की दिशा में कार्यरत होना चाहिए।

kuposhan

देश की लगभग 83 करोड़ जनसंख्या गांवों में रहती है। पहले उनके समुचित विकास की रूपरेखा देश की राजनीतिक व्यवस्था को तैयार करनी चाहिए। ग्रामीण अंचलों में बच्चों के स्वास्थ्य के साथ उनकी शिक्षा से भी खिलवाड़ हो रहा है। स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़ी विभिन्‍न योजनाओं को चलाए जाने के बाद भी न बच्चों की शिक्षा के स्तर में सुधार हो रहा है, न ही कुपोषण के डंक को देश से खत्म किया जा सका है। फिर देश किस उन्नति की तरफ जा रहा है, यह विषय सोचनीय हो जाता है।

इसके साथ हमारी राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था के समक्ष एक ज्वलंत प्रश्न उत्पन्न होता है कि तमाम योजनाओं को क्रियान्वित करने के बाद भी कुपोषण जैसे भयावह बनते रोग पर काबू क्यों नहीं पाया जा सका है। इससे ज्वलंत सवाल यह उठता है कि कृषि के क्षेत्र में व्यापक स्तर पर उत्पादन के बावजूद क्यों देश के नौनिहालों को उचित मात्रा में पोषक पदार्थ नहीं मिल पाता? 2010 में ही माननीय न्यायालय ने राज्यों को यह निर्णय सुना दिया था कि देश में अन्न की बर्बादी रोकें और भूखे लोगों की भूख मिटाने के लिए गोदामों में पड़े अन्‍न, सड़ने से पहले जरूरतमंद लोगों में बांटें, फिर भी मध्यप्रदेश जैसे राज्यों (जिन्‍हें कृषि कर्मण पुरस्कार मिला है) में अन्न की बर्बादी देश के समक्ष सोचनीय विषय है। जिस देश में लाखों-करोड़ों टन अन्‍न सड़ जाता हो, वहां के बच्चों को अन्न और उचित पोषण नसीब न हो पाना एक बड़ी विडंबना है। अभी देश के राजनीतिक गुरु-घंटालों को अपनी राजनीतिक बिसात साधने का मौका मिल जाए, फिर सभी नीतियों का सफ़ल संचालन होगा।

स्वतन्त्र देश के नौनिहालों के साथ यह घोर नाइंसाफी है कि उनको न सरकारी स्कूलों में अच्छी शिक्षा मिल पा रही है और न जीवन यापन के लिए अन्न। वर्तमान समय में कुपोषण की समस्या विकराल रूप ले चुकी है। इसके कारण ही विश्व बैंक ने कुछ समय पूर्व कुपोषण की तुलना ब्लैक डेथ रूपी उस महामारी से की थी, जिसके कारण 18वीं सदी में यूरोप की एक बड़ी जनसंख्या को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। भारत में कुपोषण के विस्तृत आकार की भयावह स्थिति को लेकर विश्व बैंक कई मर्तबा अपनी चिंता जता चुका है। बावजूद इसके हमारे नीतिनियंता सजग पहल करते नहीं दिखते। कुपोषण जैसी महामारी से निदान के लिए देश को विश्वबैंक समय-समय पर सहयोग भी करता है। बावजूद इसके देश में कुपोषण के निवारण के लिए चल रहे कार्यक्रमों की वर्तमान स्थिति बहुत अच्छी नहीं मालूम पड़ती।

नौनिहालों के स्वास्थ्य और पोषण के मामले में देश की स्थिति खस्ताहाल प्रतीत होती है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर वर्ष पांच वर्ष से कम उम्र के लगभग इक्कीस लाख बच्चे समुचित पोषण व स्वास्थ्य सुविधाएं न मिलने के कारण काल के गाल में समा जाते हैं। एक दूसरी रिपोर्ट के मुताबिक, वर्तमान वैश्विक परिस्थिति में हमारा देश दुनिया की तीसरी सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था होने के बावजूद स्वास्थ्य और पोषण के मामले में श्रीलंका, नेपाल जैसे देशों से भी पिछड़ रहा है।

यह देश के लिए बेहद शर्मनाक बात हैं, क्योंकि जिन देशों को हम आर्थिक मदद करते हैं, वे भी चिकित्सा, स्वास्थ्य और बच्चों को पोषण देने के मामले में हमसे बेहतर स्थिति में हैं। दुनिया के समक्ष सबसे ज्यादा कार्ययोजनाओं का संचालन भारत में हो रहा है। इसके बाद भी कुपोषण रूपी दुखती रग को काबू में नहीं किया जा सका है।
ऐसे में इन योजनाओं और सरकारी नीतियों को कटघरे में खड़ा करना होगा। देश में बच्चों को उचित पोषण और कुपोषण की जद से बाहर खींचने के लिए सरकारी स्कूलों में मिड-डे मील कार्यक्रम तक चलाया जाता है, जो सबसे बड़ी कार्ययोजना मालूम होती है। इसके बाद भी कुपोषण पर लगाम लगता नहीं दिख रहा।

देश में एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम भी सरकारी कागजात में चल रहा है, जिसको दुनिया में कुपोषण हरने की संजीवनी के रूप में चलाया जा रहा है और जो कुपोषण मिटाने का दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम कहा जाता है। इसके बाद भी कुपोषण देश के बच्चों को अपना डंक मारे जा रहा है और हमारी लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली कुपोषण हरने की मियाद में पानी की तरह मात्र पैसे उड़ेल रही है। इसके अलावा राज्य और केंद्र स्तर पर सरकारी योजनाओं का चलना बदस्तूर जारी है, लेकिन हालात पकड़ से बाहर हैं।

कुपोषण के लक्षण उम्र के लिहाज से कद छोटा होना, शरीर पतला होना आदि हैं। इसके अलावा देश की मलिन बस्तियों में साफ-सफाई की कमी होना भी कुपोषण का एक अहम कारण है। एक आंकड़े के मुताबिक, देश में तकरीबन पच्चीस हजार ऐसी बस्तियां हैं, जहां साफ-सफाई का स्तर औसत दर्ज़े से भी नीचे है। ऐसे में कुपोषण रूपी कालजयी अभिशाप से मुक्ति कैसे मिल सकती है। देश में सरकार द्वारा बच्चों के लिए स्वास्थ्य संबंधित तमाम योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाता है, फिर भी बच्चों की स्थिति बदतर है। भारत में छह से 23 महीने की उम्र वाले प्रति 10 बच्चों में से सिर्फ एक को ही पर्याप्त आहार मिल पाता हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि केंद्र और राज्य सरकारों की योजनाओं में खर्च हो रहे पैसे कहाँ जा रहे हैं? देश के समक्ष सबसे दयनीय तस्वीर यह है कि इस श्रेणी में भाजपा शाषित राज्यों जैसे राजस्थान और गुजरात की स्थिति भी दयनीय है।

दूसरी तरफ पंजाब के मात्र 5.9 फ़ीसदी, उत्तर प्रदेश के 5.3 प्रतिशत, राजस्थान में बच्चों को 3.4 फ़ीसदी और गुजरात के 5.2 प्रतिशत बच्चों को ही समुचित मात्रा में आहार मिल पा रहा है।  गौर करें, तो इन सभी राज्यों में भाजपा की ही सरकार है। पुदुचेरी 31. 2 फ़ीसदी बच्चों को पर्याप्त मात्रा में आहार दे पा रहा है, जो देश में किसी भी राज्‍य की तुलना में सबसे ज्यादा है। जैसा राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 खुलासा करता है। फिर सरकारी योजनाओं को देखकर ऐसा लगता है कि केवल खानापूर्ति और दिखावे के रूप में इन्हें नियंत्रित किया जा रहा है।
कुपोषण, बच्चों में अन्य रोगों का भी वाहक बनता है, जिसका सीधा सबूत यह है कि देश के 58 फीसदी बच्चे खून की कमी की गिरफ्त में हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 के आंकड़े दिखाते हैं कि भारत के सात करोड़ से अधिक बच्चे एनीमिया के शिकार हैं। इसके साथ ही देश के बच्चों में स्वच्छता के प्रति उदासीनता भी कुपोषण के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार होती है।  ऐसे में सवाल लाजिमी है कि बच्चों को स्वास्थ्य और स्वच्छता के प्रति सजग क्यों नहीं बनाया जा रहा?
अगर भारतीय परिप्रेक्ष्य में ग्लोबल हंगर इंडेक्स को देखें, तो वह  जाहिर करता है कि देश में चाहे जितना खाद्यान्न उत्पादन हो जाए, लेकिन भुखमरी में अभी भी देश 118 विकासशील देशों में 97वें नंबर पर आता है। जो देश के लिए सोचनीय प्रश्न है। इसके साथ देश के लिए यह भी विमर्श योग्य प्रश्न है कि जब देश में कुपोषण जैसी गंभीर बीमारियां अपने पैर पसार चुकी हैं, तो जीडीपी के कुल खर्च का मात्र एक फ़ीसदी हिस्सा ही क्यों स्वास्थ्य पर ख़र्च हो रहा है। इसमें वृद्धि क्यों नहीं हो रही? जब हम विकसित देशों के समक्ष खड़े होना चाहते हैं, तो फिर स्वास्थ्य मद पर हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली के सिपाहियों को जीडीपी में कुल ख़र्च में स्वास्थ्य मद को बढ़ाना चाहिए, क्योंकि अन्य विकसित देश स्वास्थ्य क्षेत्र पर लगभग 2 से 6 फ़ीसदी ख़र्च करते हैं।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh